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धि॒ष्वा शवः॑ शूर॒ येन॑ वृ॒त्रम॒वाभि॑न॒द्दानु॑मौर्णवा॒भम्। अपा॑वृणो॒र्ज्योति॒रार्या॑य॒ नि स॑व्य॒तः सा॑दि॒ दस्यु॑रिन्द्र॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dhiṣvā śavaḥ śūra yena vṛtram avābhinad dānum aurṇavābham | apāvṛṇor jyotir āryāya ni savyataḥ sādi dasyur indra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

धि॒ष्व। शवः॑। शू॒र॒। येन॑। वृ॒त्रम्। अ॒व॒ऽअभि॑नत्। दानु॑म्। औ॒र्ण॒ऽवा॒भम्। अप॑। अ॒वृ॒णोः॒। ज्योतिः॑। आर्या॑य। नि। स॒व्य॒तः। सा॒दि॒। दस्युः॑। इ॒न्द्र॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:11» मन्त्र:18 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सेनापति के गुणों अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शूर) दुःखविनाशक (इन्द्र) सूर्य के समान वर्त्तमान सेनापति ! आप (येन) जिससे (शवः) बल को (धिष्व) धारण करो उससे जैसे सूर्य (दानुम्) जल देनेवाले (वृत्रम्) मेघ को (और्णवाभम्) उर्णा जिसकी नाभि में होती उसके पुत्र के समान अर्थात् जैसे वह किसी की देह का विदारण करे वैसे (अभिनत्) छिन्न-भिन्न करता है और (सव्यतः) दाहिनी ओर से (ज्योतिः) प्रकाश कर अन्धकार को (नि,अप,अवृणोः) निरन्तर दूर करता है वैसे (आर्य्याय) उत्तम के लिये साधारण होओ जो (दस्युः) दूसरे के पदार्थों को हरनेवाला है उसका विनाश करो, ऐसे युद्ध के बीच विजय (सादि) साधना चाहिये ॥१८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे सूर्य अन्धकार को वैसे अन्याय को निवृत्त कर सज्जनों के हृदयों में सुख की प्राप्ति करा निरन्तर बल बढ़ावें ॥१८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सेनापतिगुणानाह।

अन्वय:

हे शूरेन्द्र त्वं येन शवो धिष्व तेन यथा सूर्यो दानुं वृत्रमौर्णवाभमिवावाऽभिनत्सव्यतो ज्योतिः कृत्वा तमो न्यपावृणोस्तथाऽऽर्याय साधुर्भव। यो दस्युरस्ति तं नाशयैवं युद्धे विजयः सादि ॥१८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (धिष्व) धर। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (शवः) बलम् (शूर) दुःखविनाशक (येन) (वृत्रम्) मेघम् (अवाभिनत्) विदृणाति (दानुम्) जलस्य दातारम् (और्णवाभम्) ऊर्णा नाभ्यां यस्य तदपत्यमिव (अपावृणोः) दूरीकरोति (ज्योतिः) प्रकाशम् (आर्य्याय) उत्तमाय जनाय (नि) नितराम् (सव्यतः) दक्षिणतः (सादि) साध्यताम् (दस्युः) परपदार्थापहारकः (इन्द्र) सूर्यवद्वर्त्तमानसेनेश ॥१८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैः सूर्यवदन्यायं निवर्त्य सज्जनहृदयेषु सुखं प्रापय्य सततं बलं वर्द्धनीयम् ॥१८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य अंधकार नष्ट करतो तसा राजपुरुषांनी अन्याय नाहीसा करून सज्जनांच्या हृदयात सुख उत्पन्न करून निरंतर बल वाढवावे. ॥ १८ ॥